Tuesday, June 23, 2009

मत जाओ माँ---


वक्त है ये कैसा….
ये कैसा धुआं है…
पिघलती बर्फ से…..
मैं जमी जाती हूँ…
आँखें बंद करके..
लेटती हूँ जैसे ही….
चीत्कार सुन….
काँप जाती हूँ….
कोई तो है जो….
सिसक रहा है…
कहाँ से ये आवाज़ आती है..
पागलो सी ढूंढती हूँ…
यहीं कहीं कोई….
मातम कर रहा था…
सच में….
कोई था….
ह्रदय को उसकी …
तीस सालती है…
पर दीखता नही कोई….
बियावान वन सा….
मेरा अस्तित्व….
खोजता है उसे….
जैसे बिखरे बालो में ….
कोई दार्शनिक ढूंढता है..
अपनी कविता का शीर्षक…
पर कोई नही दीखता….
मैं निरीह सी….
बिस्तर पर गिर….
ख़ुद को समझाती हूँ….
ऐसा ही होता है….
जब आसमा ….
सर से सरकता है….
और ज़मी जाने को होती है…