मेरे गुनाह कभी मेरी नेकी से बड़े थे...
वर्ना तेरे दर पर रहमतों की कमी न थी
घर से चला था तो थे और सूरत ऐ हालत ...
दर से तेरे चला तो मेरी शख्सियत और थी
लब न खुले तलक न जुबां हिली मेरी ...
तूने दिया वो भी जो दर्खास्त मेरी न थी
शिकवे इस जहाँ से होते थे तब तलक...
रहमत ऐ नूर से जब मुलाकात मेरी न थी